शनिवार, 22 अगस्त 2015

सखी मैंने भी बेर चुने
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शुभ प्रभात!
आप सोचते होंगें कि मैं तो अदृश्य ही हो गयी। साथियों कुछ तो नून, तेल, लकड़ी की चिंता और कुछ आलस्यवश अनुपस्थित ही रही। आजकल मैं छोटी बेटी के पास लंदन आयी हुई हूँ। व्हाट्स ऐप पर एक सन्देश पढ़ा था।उसी पर विचार आते रहे और अंत में ये कविता निकली।
ऊषाजी कल आपने एक बहुत सुन्दर विचार भेजा था,
      'बेर चुनने का।'
उसी से कुछ विचार आये है। सुनिए,न,
   'सखी मैंने भी बेर चुने'
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सखी गयी थी बेर चुनन को,
कांटे रास्ते में आये ,
इच्छा थी तीव्र मिलन की,
वोे मुझे रोक ना पाये।
कुछ चुने बेर 'खट्टे मीठे',
चख कर मीठे हैं रक्खे,
बैठी मैँ राह तकूँ री सखी,
प्रभु जाने कब आ जाए।

गयी प्रात,जा रही दोपहरी,
संध्या होने को आयी,
आँखे हैं कि पथराने लगीं,
साँसों की डोर चरमराई।
सखी जाते दिखते राहों पर,
अनजान अचीन्हे राही,
प्रभु भुला दिया है मुझको,
मुझे तुम नहीँ दिए दिखाई।

मानूं  मैँ गंवार, कुरूपा,
कुल, जाति, गोत्र ना मानूं ,
कछु ज्ञान-ध्यान ना जानूं ,
पूजा की रीत ना जानू।
मेरा शबरी मन कबसे ,
है दरस की आस लगाए,
तुझे पाने की चाहत में ,
मैंने कितने जन्म गँवाए।

प्रभु कब तक आ जाओगे?
कहीं आस छूट ना जाए,
मेरे इस अधम जीवन की,
कहीं डोर टूट ना जाए।
क्यूँ आँख मिचौली मुझसे,
करते ना थकते स्वामी,
क्या इतने दिन हैं तरसाते,
अपनों को अन्तर्यामी?

मैं इसी सोच में थी बैठी,
मन में थी निराशा पैठी।
नयनों ने भी टेर लगाई,
प्रेम जल की झड़ी बरसाई।
तभी मन की दबी परतों से,
आवाज़ तुम्हारी आयी,
"मुझे अब तक ना पहचानी?
 तू तो मेरी ही परछाईं।"

"तूने परछाईं तो पकड़ ली,
पर मुझे बंद कर रखा है,
मद काम क्रोध लोभ मोह की,
परतों से जकड़ कर रखा है।
जब तक तू इनको पालेगी,
मैं कैसे बाहर आऊंगा ?
तेरे अंतर के इन व्यसनों के,
जाल में फंसा रह जाऊंगा।

पहले अपने पापी मन को,
शबरी मन सम तू स्वच्छ बना,
मद काम क्रोध लोभ मोह की,
भक्ति अग्नि में चिता जला।
सेवा, प्रेम और कर्तव्य कर,
नित निष्काम कर्म अपनाएगी,
मेरे नाम रूप की,अंतर में
तब अखंड ज्योति जल जायेगी।

फिरतो 'अमिता'अंदर बाहर,
हर ओर मुझी को देखेगी ,
पहनूंगा जो   पहनायेगी,
नाचूँगा  यदि  तू नचाएंगी।
खाऊंगा प्रेम से ये झूठे बेर,
यदि तू भी वही खिलायेगी,
'शबरी सम' तू रम जायेगी,
'मेरा नित्य एकत्व' पा जायेगी।।
'मेरा नित्य एकत्व' पा जायेगी।।
 अमिता,          
 ( लंदनसे )
20.07.2015

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